देव दिवाली पर हसदेव नदी की आरती और मिट्टी के दीये से सजी दिवाली, परंपरा और आधुनिकता के बीच की चुनौतियों का सामना
कोरबा में नमामि हसदेव संगठन ने आगामी देव दिवाली के उपलक्ष्य में हसदेव नदी की आरती की तैयारी शुरू कर दी है। संगठन के प्रमुख रणधीर पांडेय ने बताया कि हर वर्ष की तरह, कार्तिक अमावस्या (31 अक्टूबर) और कार्तिक पूर्णिमा (15 नवंबर) पर विशेष आरती का आयोजन होगा, जिसमें अधिकतम लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।
हसदेव नदी की आरती: एक धार्मिक और सांस्कृतिक पहल
हसदेव नदी की सफाई और संरक्षण के उद्देश्य से नमामि हसदेव संगठन लगातार सक्रिय है। संगठन ने हर अमावस्या और पूर्णिमा को हसदेव की आरती करने की परंपरा शुरू की है। इस आयोजन में नगर के विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ता, प्रशासनिक अधिकारी और आम नागरिक भी शामिल होते हैं। नदी आरती की इस परंपरा ने धीरे-धीरे कोरबा में व्यापक जनसमर्थन प्राप्त किया है।
नदी संरक्षण के साथ परंपराओं का निर्वाह
संगठन का उद्देश्य नदियों को धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक मानते हुए उनके संरक्षण की भावना को जन-जन तक पहुंचाना है। इस आयोजन के माध्यम से, संगठन यह संदेश दे रहा है कि नदियां सनातन काल से हमारी आस्था का हिस्सा हैं और उनकी सुरक्षा सामूहिक प्रयास से ही संभव है।
मिट्टी के दीयों की परंपरा और कुम्हारों की चुनौतियाँ
दीवाली के इस पर्व में मिट्टी के दीये जलाने का रिवाज है, जिसके लिए कोरबा के कुम्हार समुदाय कई दिनों से दीये बनाने में जुटा है। हालांकि, आधुनिकता के प्रभाव में प्लास्टिक और बिजली के रंगीन दीयों के चलते मिट्टी के दीयों की मांग कम हो गई है। इस कारण कुम्हारों की आय पर असर पड़ा है, जो अब मिट्टी लाने और पकाने में भी कई कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं।
कुम्हारों की कम होती कमाई और पारंपरिक संघर्ष
बढ़ती महंगाई और आधुनिक विकल्पों के कारण अब मिट्टी के दीये बनाने वालों को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। कुम्हार परिवारों का कहना है कि पहले दीयों की बिक्री से अच्छी कमाई होती थी, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। मिट्टी और ईंधन की किल्लत के चलते, दीये बनाना महंगा हो गया है, और मांग में गिरावट के कारण उनके लिए यह कार्य चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।
मिट्टी के दीयों से जुड़ी सांस्कृतिक पहचान
कुम्हार समुदाय आज भी अपने पूर्वजों की कला को संजोए रखने का प्रयास कर रहा है। दीवाली के इस पर्व पर मिट्टी के दीये जलाना भारतीय संस्कृति का हिस्सा है, और इसे बचाने के लिए स्थानीय कुम्हार अपने संघर्ष में जुटे हैं।