जगदलपुर, बस्तर: विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा की सबसे अद्भुत और रहस्यमयी रस्म निशा जात्रा बीती रात दो बजे पुरातन विधि-विधान के साथ पूरी की गई। इसे प्राचीन काल में काला जादू की रस्म भी कहा जाता था। पुराने समय में राजा-महाराजा इस रस्म के जरिए बुरी प्रेत आत्माओं से राज्य की रक्षा करते थे।
निशा जात्रा रस्म जगदलपुर के अनुपमा चौक स्थित गुड़ी में निभाई गई। इसमें चावल और उड़द दाल का भोग तैयार कर उसे जमीन में गाड़ा गया। इसके साथ ही देवी को प्रसन्न करने के लिए कुछ पशुओं की बलि दी गई। पहले यह परंपरा हजारों पशुओं की बलि देने की थी, लेकिन समय के साथ बलि कम होती गई।
राजपरिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने बताया कि अर्धरात्रि को निभाई जाने वाली इस रस्म को निशा जात्रा कहा जाता है। यह परंपरा सदियों पुरानी है। पुराने समय से यह प्रथा रही है कि जैसे नवरात्रि में अष्टमी समाप्त होती है, वैसे ही बलि देने की प्रक्रिया होती है और तंत्र विद्याओं की पूजा की जाती है।
इस रस्म में चावल, मूंग की दाल और नमक से बने बड़े भोग का इस्तेमाल किया जाता है। तंत्र विद्या में मीठे का इस्तेमाल नहीं होता। इस भोग को जमीन में गाड़ा जाता है और कहा जाता है कि साल भर बाद भी इसमें कीड़े नहीं लगते।
निशा जात्रा की अदायगी के लिए रात में राजमहल और दंतेश्वरी मंदिर परिसर से विशेष जुलूस निकलता है। इस जुलूस में पुजारी, परगनों से आए देवप्रतिनिधि (मूर्तियां और चल देव) और श्रद्धालु पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ शामिल होते हैं। ढोल, नगाड़े, मोहरी बाजा की गूंज के बीच यह जुलूस पूरी रात चलता है। जुलूस में आंगादेव भी शामिल होते हैं, जो रस्म की भव्यता और पारंपरिक महत्व को और बढ़ाते हैं।