बस्तर के आराध्य चिकटराज देव, वार्षिक अनुष्ठान में दर्शन देते हैं, जानिए इनकी अनोखी परंपराएं

छत्तीसगढ़ का बस्तर अपनी अनोखी परंपराओं, आदिवासी रीति-रिवाजों, कला-संस्कृति और मेलों के लिए विख्यात है। आज हम आपको बस्तर की एक ऐसी ही अनोखी परंपरा के बारे में बताने जा रहे हैं, जो बीजापुर में विराजमान चिकटराज देव से जुड़ी है।

चिकटराज देव न सिर्फ बीजापुर के आराध्य हैं, बल्कि वर्ष में केवल एक बार ही वार्षिक अनुष्ठान के दौरान अंचलवासियों को दर्शन देते हैं।

तीन दिवसीय वार्षिक अनुष्ठान के दरम्यान ही चिकटराज देव नगर के तहसील आफिस भी पहुंचते हैं। जानकार गौतम राव बताते हैं कि रियासतकाल में राजकोष में वित्तीय व्यवस्था के अंतर्गत कर इत्यादि के संग्रह के लिए खजांची नाम से व्यवस्था लागू थी। राज-महाराजाओं की ओर से जिसका समय-समय पर निरीक्षण किया जाता था।

यह परंपरा वार्षिक अनुष्ठान के द्वितीय दिन निभाई जाती है। पूरे विधि-विधान को संपन्न कराने के दौरान चिकटराज देव के साथ पुजारी, मंदिर समिति सदस्य और नगरवासी तहसील कार्यालय पहुंचते हैं।

इस बीच बीजा देवी, गुज्जा देव (अंचल के प्रमुख देव-देवी) से विशेष भेंट मिलाप की रस्म भी पूरी की जाती है। कोमटी देव तालाब में स्नान के साथ ही देव विग्रहों के पहुंचने के पश्चात पूजा-अर्चना से जुड़ी अन्य रस्में पूरी होती हैं। तत्पश्चात् मंदिर के नजदीक एक स्थल पर जिसे मंड़ई भाटा कहा जाता है वहां देव खेलनी की परंपरा आरंभ होती है।

अमूमन चिकटराज मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है, लेकिन वार्षिक अनुष्ठान के दौरान महिलाएं भी पूजा-अर्चना में जुटती हैं।

बारह वर्ष बाद चिकटराज का होता है पुर्नजन्म। इस दौरान नवजात से जुड़े प्रत्येक संस्कार को पूरे कर विधि-विधान से इन्हें गृर्भग्रह में पुनः विराजमान कराया जाता है।

वर्तमान में मंदिर समिति में देव सियान मेघनाथ मांझी, देव प्रमुख रामशरण मांझी, पुजारी सागर पुजारी, परघनिया मांझी रामशंकर साहनी, माता पुजारी संजय, पेरमा दिनेश, माटी पुजारी सुखलाल, गायता नंदकिशोर पांडेय द्वारा परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।

यह परंपरा न सिर्फ आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसके पीछे एक गौरवशाली इतिहास भी छुपा है। यह परंपरा हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहने और अपनी संस्कृति को संजोकर रखने की प्रेरणा देती है।

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