डोंगरगढ़ का इतिहास

छत्तीसगढ़ की पावन धरती अपनी धरोहरों से सुशोभित हो रही है। जिसमें डोंगरगढ़ की मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर धार्मिक आस्था का प्रतीक है। मान्यता है कि मां बम्लेश्वरी देवी अपने भक्तों की सभी मनोकामना पूर्ण करती है। मां का दरबार जितना आलौकिक है, उतना ही इसका इतिहास भी समृद्धि है। आस्था का ये नजारा डोंगरगढ़ की मां बम्लेश्वरी मंदिर का है। यहां भक्त दूर-दूराज से अपनी मुरादें लेकर आते है, और मां अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी कर उनकी झोली खुशियों से भर देती है। मां बम्लेश्वरी खूबसूरत हरी-भरी वादियों और झील के किनारे ऊंचे पहाड़ पर विराजती हैं। बगलामुखी मां के इस स्वरूप की एक झलक पाने के लिए देशभर से भक्त यहां पहुंचते हैं। डोंगरगढ़ बमलाई वैभव लोगों को बरबस यहां खींच लाता है। वैभव के साथ यहां का इतिहास भी बड़ा रोचक है। डोंगरगढ़ को प्राचीन समय में कामाख्या नगरी
और डुंगराज्य नगर के नाम से जाना जाता था। खंडहरों और स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ता इसे कलचुरी काल के 12वीं-13वीं सदी के लगभग का
मानते हैं। मंदिर में मूर्तियों के गहने, वस्त्र, आभूषण और मूर्तिकला पर गोंडकला का प्रभाव दिखाई पड़ता है।


डोंगरगढ़ को लेकर एक और कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि यहां के राजा कामसेन के दरबार की नर्तकी कामकंदला और संगीतकार माधवानल का प्रेम परवान चढ़ा। जो राजा कामसेन को रास न आया। राजा ने इस प्रेमी जोड़े को अलग कर दिया। संगीतकार माधवानल राजा विक्रमादित्य की शरण में पहुंचे और कामकंदला को आजाद करवाने की गुहार लगाई। विक्रमादित्य और कामसेन में युद्ध शुरू हो गया। जिसमें राजा विक्रमादित्य विजयी रहें। वहीं माधवानल के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने की झूठी खबर सुनकर कामकंदला ने अपने प्राण त्याग दिए। दूसरी ओर माधवानल ने भी अपने प्राणों की आहुति दे दी। इस घटना से राजा विक्रमादित्य भी आहत हुए, और अपने प्राण त्यागने का मन बना लिया।


राजा विक्रमादित्य मां बम्लेश्वरी के बड़े भक्त थे। मां ने प्रकट होकर अपने भक्त को जीवन नष्ट करने से रोक लिया। विक्रमादित्य ने मां बम्लेशवरी से कामकंदला और माधवानल को जीवनदान देने और माता को स्वयं पहाड़ी पर प्रतिष्ठित होने की प्रार्थना की। दूसरी मान्यता ये भी है कि करीब ढ़ाई हजार वर्ष पहले कामाख्या नगरी
में राजा वीर सेन का शासन था। जिसकी कोई संतान नहीं थी। राजा ने मां दुर्गा और शिवजी की उपासना की, जिससे उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। माता दुर्गा और
शिवजी के प्रति आभार प्रकट करने के लिए ही राजा वीरसेन ने मां बम्लेशवरी का मंदिर बनवाया था।

ऐसी ही कई मान्यताओं को डोंगरगढ़ की ये पहाड़ी अनादिकाल से अपने गर्भ में समेटे हुए है।

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